देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर, देहरादून स्थित आश्रम सभागार में आज रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-पव्रचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन किया गया। संस्थान के संगीतज्ञों द्वारा भावपूर्ण भजनों की प्रस्तुति देते हुए कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया। भजनों की सारगर्भित मिमांसा करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी ममता भारती जी के द्वारा किया गया। सुश्री भारती जी ने व्याख्या करते हुए बताया कि जिस प्रकार एक बीज को पौधा बनने में तथा उस पौधे को पेड़ बनने में एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है तब उसे आधार चाहिए होता है धरती, आकाश, जल, खाद, हवा, सूर्य का प्रकाश इत्यादि का, तभी! एक दिवस वह बीज विकसित होकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत हो, संसार को शीतल छाया और मधुर फल देने में सक्षम हुआ करता है। ठीक इसी प्रकार एक जीवात्मा जन्म लेने के पश्चात जब ज्ञान-सूर्य रूपी सद्गुरू की शरणागति को प्राप्त कर उनकी आज्ञा में चलने का धरती सदृश दृढ़ संकल्प, भक्तिमार्ग में गुरू कृपा रूपी खाद, हवा के वेग से निरंतर चलते ही जाने की ललक और अपने आकाश शरीखे मस्तिष्क में सद्विचारों की अनन्त श्रंखला को जन्म देता है तब उस नन्हें से शिष्य रूपी पौधे को सद्गुरूदेव विशाल आकार देकर उसकी घनी छाया में दुनिया को शांति और विश्रान्ति प्रदान करते हुए मधुर फलों से उनकी क्षुधा शांत करने का महती कार्य किया करते हैं। साध्वी जी ने कहा कि जन्मों-जन्मों का बोझ ढो रही अंर्तात्मा जब संसार के भीतर आती है तो इस बोझ को ढोने में कोई उसका सहभागी नहीं बन पाता। मन के अनन्त विचारों का बोझ, अनेक प्रकार के विकारों-वासनाओं का बोझ जैसे कि इन्हें ढोते रहना ही उसकी नियति बन चुकी होती है। अब जो किया है तो, भुगतना तो पड़ेगा ही।
कार्यक्रम में देहरादून आश्रम की संयोजक विदुषी अरूणिमा भारती जी ने अपने विचार प्रवाह में भक्तजनों को बताया कि सद्गुरू की संगत जीव को भवसागर से तार देने की अद्वितीय क्षमता रखती है। संत का संग दुर्लभ बताया गया है। कबीर साहब तो कहते हैं- ‘‘एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध, कबीरा संगत साधु की, कटहिं कोटि अपराध’’ पूर्ण गुरू का सत्संग एक ‘कल्पवृक्ष’ की मानिन्द होता है जिसमें आकर बैठने से, एकाग्रता पूर्वक श्रवण करने से मनुष्य का कायाकल्प निश्चित है। मन लगे न लगे लेकिन सत्संग के पावन वातावरण में आकर मानव अपनी आत्मा को वह सुख प्रदान करता है जो संसार में अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं है।
सद्गुरूदेव जीवन जीने की कला ही तो सीखाते हैं। संघर्ष ही तो जीवन है। यह संघर्ष मनुष्य को गढ़ता भी है और कुछ बना भी देता है। उन्होंने श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी और उनके शिष्य तथा उसकी पत्नी का दृष्टांत जब सुनाया तो गुरू की महिमा सुन संगत आत्म-विभोर हो गई। गुरू दाताओं के भी दाता होते हैं, शिष्य को विश्वास की पात्रता विकसित करनी होती है। एैसे दाता से ही कुछ मांगा भी जाता है और मिलता भी है। यदि नहीं मिल रहा तो समझना चाहिए कि इसी में शिष्य का भला है। गुरू कभी भी अपने शिष्य को वह नहीं देता जिसमें उसका अहित हो इसलिए शिष्य को भी बिना कोई मांग किए एक ही मांग करनी चाहिए कि हे गुरूदेव हमें भक्ति की एैसी शक्ति दो कि हम इस विकट भक्ति मार्ग में आपकी पूर्णतः और अक्षरशः आज्ञा में चल पाएं और सबसे बड़ी दात हमें यह दीजिए कि अपने श्री चरण कमल हमारी झोली में डाल दीजिए। आप से कम हमें कुछ भी मंजूर नहीं है, हम कभी विचलित न हों, दृढ़ विश्वास के साथ चलते ही रहंे और शिव संकल्पित हो, सकारात्मक दृष्टिकोण से इस सम्पूर्ण जगत के परम कल्याण में अपना सर्वस्व अर्पित कर पाएं। संसार में रहकर ईश्वर के साथ जुड़ाव ठीक इस प्रकार हो- ‘‘न जग बिसरो, न हरि को भूल जाओ ज़िन्दगानी में, दुनिया में एैसे रहो, जैसे कमल रहता है पानी में।’’
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।