उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से सत्ता का रास्ता तय करते रहे हैं। समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव को भी यह बात बखूबी समझ में आ चुकी है कि केवल यादव और मुस्लिम वोट बैंक के सहारे सत्ता की चाबी दोबारा हासिल नहीं की जा सकती। यही वजह है कि अखिलेश यादव अब अपने सियासी अभियान में पिछड़े, अति पिछड़े और दलित वर्गों को प्राथमिकता देने में जुट गए हैं।

हाल के दिनों में अखिलेश यादव की रणनीति में जो सबसे बड़ा बदलाव देखने को मिला है, वह है मंच पर उनके साथ मौजूद नेताओं और प्रतिनिधियों की जातिगत विविधता। बीते दस दिनों में उन्होंने छह से अधिक प्रेस कॉन्फ्रेंस की हैं और हर बार उनके साथ कोई न कोई अति पिछड़े वर्ग का नेता मंच पर नज़र आया — कभी राजभर समाज के नेता, कभी चौरसिया समुदाय के प्रतिनिधि, तो कभी नोनिया-चौहान जाति के चेहरे। इस प्रयास के पीछे एक स्पष्ट संदेश है कि अब समाजवादी पार्टी सिर्फ़ यादवों की नहीं रही, बल्कि यह अति पिछड़े समाज की भी आवाज़ बन रही है।
अखिलेश यादव ने हाल ही में लालचंद गौतम के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जहां उन्होंने गौतम को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की मूर्ति भेंट की। यह प्रतीकात्मक इशारा था कि सपा अब दलित समाज को भी अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रही है। हालांकि कुछ दिन पहले लालचंद गौतम ने जो तस्वीर अखिलेश यादव को भेंट की थी — जिसमें आधा चेहरा अखिलेश का और आधा अंबेडकर का था — उस पर जमकर विवाद हुआ। बीजेपी ने इस तस्वीर को आधार बनाकर अखिलेश और उनकी पार्टी को दलित विरोधी साबित करने की कोशिश की। विवाद इतना बढ़ा कि अखिलेश को सफाई देनी पड़ी कि यह एक “अनजाने में हुई गलती” थी।
लेकिन अखिलेश का गौतम को मूर्ति भेंट करना दर्शाता है कि वह इस विवाद को पीछे छोड़कर दलितों के साथ अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करना चाहते हैं। यह नया समाजवादी एजेंडा न केवल बीजेपी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है, बल्कि अखिलेश की सत्ता में वापसी की मजबूत बुनियाद भी बन सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यूपी में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की आबादी करीब 40-45% है। अगर सपा इन जातियों में सेंध लगाने में सफल होती है, तो यह बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति को बड़ा झटका हो सकता है। वहीं बसपा जो लंबे समय से दलित वोट बैंक की एकमात्र ठेकेदार बनी हुई थी, वह भी असहज स्थिति में आ सकती है।

अखिलेश की यह नई सियासी दिशा एक बड़ा दांव है। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वह इस सोशल इंजीनियरिंग के जरिए सिर्फ नरेटिव बदलते हैं या वाकई वोटबैंक में परिवर्तन ला पाते हैं।