जुगनू नर्म शरीर वाले बीटल्स होते हैं जो लैमपिरिडे परिवार के सदस्य हैं । ये कीड़े अपनी बायोल्युमिनेंस यानि टिमटिमाने के लिए जाने जाते हैं ।ये पर्यावरण के जाने माने जैव संकेतकों में से एक हैं , क्यों कि ये स्वच्छ वातावरण के बायोइंडिकेटर के रूप में काम करते हैं । दुनिया भर में जुगनुओं पर व्यापक अध्ययन किया गया है, विश्वभर में इनकी दो हज़ार से भी ज़्यादा प्रजातियाँ पाई गई हैं ।
भारत में इन चमकते एवं टिमटिमाते कीड़ों पर विशेष शोध नहीं किया गया है, बीते कुछ वर्षों में इन कीटों की संख्या में कमी देखी गई है जो कि जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरणीय क्षति के कारण होने वाले उत्सर्जन के की वजह से हो रही हैं । इस कारण कुछ कीट विशेषज्ञों का ध्यान इन के अध्ययन पर केंद्रित हुआ है । भारत वर्ष में इनकी लगभग पचास प्रजातियाँ पाई गई हैं जो कि अनुमानित हैं एवं बहुत कम शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं ।
जुगनुओं पर देश का पहला शोध प्रवंध (पी एच डी) निधि राण द्वारा किया गया है । निधि ने जुगनुओं पर अपना शोध कार्य भारतीय वन्यजीव संस्थान के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. वी पी उनियाल एवं गुरु राम राय विश्वविद्यालय के जीवविज्ञान विभाग के प्रोफेसर डा. राजेश रयाल के निर्देशन में किया है ।
निधि ने दून वैली में फायरफ़्लाइज़ की प्रजातियों तथा उन पर पर्यावरण के प्रभावों के कारण होने प्रभावों के बारे में अपना शोध कार्य किया है । निधि के शोध के लिए लंदन की संस्था रफोर्ड फ़ाउंडेशन ने उन्हें फैलोशिप प्रदान की है । इस शोध के नतीजे बताते हैं कि दून वैली में जुगनुओं की कुल छै प्रजातियाँ पाई जाती हैं इनमें से कुछ बहुत कम होती जा रही हैं, यदि वैली में मानवीय गतिविधियों के कारण पर्यावरणीय प्रभावों में वृद्धि होती रही तो ये टिमटिमाने वाले ख़ूबसूरत जीव शायद भविष्य में विलुप्त हो सकते हैं ।