महापुरूषों का मानव समाज़ के लिए एक दिव्य आह्वान है कि ढूंढिए एैसे संबंध को जो निस्वार्थ हो, जो सिर्फ देना जानता हो, खोजिए एैसे किसी दिव्य परम पुरूष को जिसका निष्पाप सौन्दर्य अपार शांति को प्रदान करे, खोजिए एक एैसे संबंध को जो हमारी व्यवहारिकता को नहीं वरन हमारी अनन्त कोशिशों को देखे और सराहे, कर्म करने की लगन और भावना को निहारे, जिसके सामने अपने विचारों को, भावनाओं को रखने के लिए सोचना न पड़े। क्या एैसा कोई संसार की भीड़ में मिलेगा? शायद नहीं! क्यों कि पल-पल रंग बदलते इस निरर्थक संसार में तो स्वार्थ की बैसाखियों पर टिके हुए मतलबी लोग ही मिल पाएंगे। महापुरूष यदि हमसे प्रश्न करते हैं तो साथ ही समाधान भी दर्शा दिया करते हैं। वे कहते हैं कि इसी संसार में एक एैसा महान व्यक्तित्व हमें मिल सकता है जिसमें उपरोक्त समस्त गुणों का दिव्य संगम विद्यमान रहता है।

इस महान व्यक्तित्व को पूर्ण सदगुरूदेव कहकर इनकी महिमा का बखान समस्त शास्त्रों-ग्रन्थों-उपनिषदों और पुराणों में दर्ज़ है। यह हमारी सुनता भी है और अच्छे से इनकी कद्र भी किया करता है। इसी के संबंध में तो कह दिया गया- ‘‘चींटी के पग नूपुर बाजे, सो भी साहिब सुनता है।’’ जो भला! चींटी के पांव में बजते घुंघरू तक सुन लेता है वह भला! अपने भक्त के हृदय के भावों को कैसे नहीं सुनेगा। भगवान शिव माता उमा जी से कथन करते हैं कि हे उमा! जो तत्व के द्वारा निराकार का दर्शन मानव हृदय में करा सकता है वही तो परमात्मा की गुरू रूप परम शक्ति है। महापुरूष यह भी कहते हैं खोजिए एक एैसे शिष्य को जो अपने गुरूदेव के उच्च आदर्शों को पूर्णतः जिया करता हो, खोजिए एक एैसे शिष्य को जिसके भीतर से गुरू का ज्ञान प्रकट होता हो, ढूंढिंए एैसे शिष्य को जिसके प्राणांे मंे सदगुरू का आदिनाम अविराम चलता रहता हो, तलाशिये एैसे शिष्य को जो गुरूवर और गुरूघर के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर सकता हो, खोजिए एैसे शिष्य को जो पूर्ण गुरू की गुरूता में उनकी आज्ञानुसार चलते हुए लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयास करता हो। मिल सकता है! एैसा शिष्य भी इसी संसार में मिल सकता है क्योंकि पूर्ण गुरू के नाम के साथ जो पूर्ण लगा है वह एैसे ही नहीं लगा है, इसके बहुत बड़े मायने हैं। पूर्ण गुरू अपनी सामर्थ्य से एैसे शिष्य का निर्माण कर सकते हैं। पूर्ण गुरू का पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ एैसी सनातन तकनीक है जो जिसके भीतर उतर गई उसे भवसागर से पार उतार कर ही रहती है, बस! शिष्य के लिए तो बड़ा आसान सा काम है कि मात्र अपने गुरूदेव पर सम्पूर्ण रूप से आश्रित हो जाए, अपने गुरू पर निर्भरता कायम कर ले, अपने विश्वास को उनके श्रीचरणों में समर्पित कर दे, बस! फिर सबकुछ गुरू का और सारी चिंता उस चिंतामणि की।

अपने मन की चंचलता को स्थिर न कर पाने और गुरू की आज्ञा की अवहेलना कर जाने मात्र से शिष्य अपने लक्ष्य से भटक जाता है। ज्ञान की साज-सम्भाल कोई आसान काम नहीं, इसके लिए सर्वप्रथम खुद को स्थिर करना पड़ेगा और एैसा तभी हो सकेगा जब गुरू ने जो दिया है उस पथ पर एकाग्रचित्त और पूर्ण साहस के साथ चलते चले जाना है। कोई किन्तु-परन्तु नहीं मन बुद्धि की कोई चालबाज़ियां नहीं, कोई सांसारिकता नहीं बल्कि पूर्ण निष्ठा और असीम प्रेम से केवल अध्यात्मिकता। तभी टिका जा सकता है गुरूमार्ग में एक शेर की तरह। ब्रह्मज्ञान को महापुरूषों ने शेरनी का दूध बताया है जो कि मात्र स्वर्ण पात्र में ही ठहर सकता है। स्वर्ण पात्र अर्थात शिष्य का शुद्ध हृदय, शिष्य का समर्पित मन, और शिष्य का पूर्ण र्निविकार स्वरूप। यह भी मायने रखता है कि शिष्य ने अपने गुरू को स्थान कौनसा दिया है। जो शिष्य अपने गुरू को दूसरा स्थान देता है वास्तव में वह अपने गुरू को कोई स्थान देता ही नहीं है। एक शिष्य के लिए गुरू का स्थान तो प्रथम, मध्य और अंतिम हर जगह हुआ करता है। एैसा शिष्य द्रुतगति से भक्तिमार्ग में बढ़ता हुआ अति शीघ्र अपने गुरू को प्राप्त कर लिया करता है। एैसा शिष्य गुरू की ही अभिव्यक्ति बन जाया करता है और उसके द्वारा श्वांस-श्वांस में अपने गुरू का सुमिरन करते हुए जो भी कहा जाता है गुरूदेव उसके कहे वचनों को ब्रह्मवाक्य बना दिया करते हैं। शिष्य के लिए भी लाजिम है कि वह अपने मुख से कुछ भी एैसा न कहे जो गुरू के सृष्टि विद्यान में हस्तक्षेप की श्रेणी में आता हो। धर्म सम्मत आचरण करते हुए शिष्य को सदा अपने गुरू के ही आधीन रहना चाहिए। गुरू को अपना सुहृदय जिस शिष्य ने जान लिया उसे शांति का महासागर गुरूदेव प्रदान कर दिया करते हैं।


दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की देहरादून स्थित निरंजनपुर शाखा के आश्रम सभागार मंे प्रत्येक रविवार की भांति आज भी साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन किया गया। यह सदविचार सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी द्वारा संगत के समक्ष उजागर किए गए। कार्यक्रम का शुभारम्भ माह का प्रथम रविवार होने पर संस्थान के दिव्य वेद मंदिर के वेदपाठी शिष्य-शिष्याओं द्वारा वेदों की ऋचाओं का गान करते हुए किया गया। पीत वस्त्रों में सुसज्जित, मस्तक पर त्रिपुण्ड धारण किए हुए वेद पाठियों के दिव्य स्वरों से उच्चारित पवित्र रूद्रीपाठ से वातावरण में दिव्यता का प्रवाह श्रोताओं को अभिभूत कर गया। तत्पश्चात मर्म को छू लेने वाले अनेक भजनों का गायन करते हुए संगीतज्ञों द्वारा समां बांधा गया। 1- प्रभु जी मेरी अर्ज़ करो स्वीकार…… 2- मेरी झोंपड़ी के भाग आज खुल जाएंगे, मेरे राम आएंगे…… 3- तारीफें मुर्शिद की कैसे मैं करू बता…… 4- ज़िन्दगी दी है तो जीने का हुनर भी दे दो, सुण मालका मेरी कूक पपीहे वाली….. 5- तू माने या ना माने दिलदारा, असां तैनू रब मानंया…… 6- बहुत उम्मीदें हैं सतगुरू को अपनी संतानों से….. 7- ज़माना सब गाएगा, ऊँ श्री आशुतोषाए नमः…… इत्यादि भजनों का गायन किया गया।


भजनों की सम्पूर्ण व्याख्या करते हुए मंच का संचालन सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या और देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती जी के द्वारा किया गया। भारती जी ने सत्संग कार्यक्रम में उपस्थित भक्त-श्रद्धालुगणों को सम्बोधित करते हुए बताया कि विचार हमारे मन पर चोट करते हैं और चोट से निर्माण हुआ करता है, विशेषकर अध्यात्म मार्ग में तो अवश्य ही निर्माण होता है। लंका प्रवेश के समय जब लंकिनी ने श्री हनुमान जी का रास्ता रोका तो हनुमान जी ने अपनी मुष्ठिका का प्रहार लंकिनी पर जब किया तो लंकिनी ने इस चोट पर यही कहा कि मेरा तो सत्संग हो गया। वास्तव में महापुरूषों का स्पर्श जब जीव पर होता है तो उनके दिव्य स्पर्श से जीव के ज्ञान तंतु खुल जाते हैं। वास्तव में ही लंकिनी द्वारा कहे गए शब्द सत्संग की महान महिमा को ही प्रतिबिम्बित किया करते हैं। संसार के समस्त सुखों को तराजू के एक पलड़े में रख दिया जाए और दूसरे पलड़े में सत्संग का पल भर का सुख रखें तो निश्चित रूप से सत्संग का पलड़ा ही भारी रहेगा। वे जन बड़े ही सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें एैसे दिव्य प्रहार युक्त सत्संग-प्रवचनों को श्रवण करने का शुभ लाभ प्राप्त होता है।

श्री गुरूनानक साहब कहते हैं कि गुरू और परमात्मा में कतई कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही दिव्य शक्ति के दो पहलू हैं। मनुष्य का विश्वास ही फलकारक हुआ करता है। जिसका विश्वास दृढ़ है वह गुरू और परमात्मा के अभेद को स्पष्टतः देख लिया करता है। विदुषी जी ने कहा कि लोग आज मात्र अपनी इच्छापूर्ति के लिए ही भगवान को भजते हैं जबकि भगवान ज़रूरतें पूरी करते हैं, कामनाएं नहीं! प्रभु श्री राम ने, प्रभु श्री कृष्ण ने तो अपने माता-पिता तक की मोह जनित इच्छाओं को पूर्ण नहीं किया जबकि भगवान श्री कृष्ण ने भक्ति भाव से भरे सुदामा को सबकुछ दे दिया। प्रभु श्री राम ने भक्त विभीषण को लंका का पूरा राज्य दे दिया। बच्चा रोता है तो मां उसे दौड़कर उठा लेती है, अपने गले से लगा लेती है लेकिन! बच्चा जब रोने का अभिनय करे तो मां उस पर ध्यान नहीं देती। ठीक एैसे ही प्रभु भी भक्त के भावों के आधीन हुआ करते हैं। कहा भी गया- ‘‘भाव के भूखे प्रभु, भाव ही इक सार है, भाव से जो उनको भजे तो, भव से बेड़ा पार है।’’ वास्तव में तो जो भक्त है उसकी मांग ही अवयक्त है क्योंकि मांगने का अर्थ विश्वास की कमी ही कहलाएगी, क्योंकि हमारा प्रभु हमारे मांगने से पहले ही जानता है कि हमें क्या चाहिए। प्रार्थना शुद्ध-विशुद्ध होनी चाहिए और मांग भी विशद होनी चाहिए। विशद मांग यही कि प्रभु से प्रभु को मांग लिया जाए। भक्त यही तो कहता है- ‘‘किसी से क्या मांगूं, प्रभु तुझसे ही मांगता हूं, और तुझसे भी क्या मांगूं, मैं तुझी को मांगता हूं।’’ एक शिष्य को अपने गुरू के वचनों पर दृढ़ विश्वास होना चाहिए। कहते हैं न!- ‘‘गुरू वचनों को रखना सम्भाल के, गुरू वचनों में गहरा राज़ है, जिसने जानी है महिमा गुरू की, उसका डूबा कभी न जहाज़ है।’’ शबरी जी शायद गुरू वचनों पर दृढ़ विश्वास की सबसे बड़ी प्रतीक हैं जिन्होंने अपने गुरू मतंग ऋषि जी के इन वचनों को मात्र सुना या माना ही नहीं बल्कि आत्मसात कर लिया था कि- ‘शबरी! तेरी कुटिया में एक दिवस प्रभु श्री राम पधारेंगे’ और बस! यहीं से शुरू हो गया शबरी जी का अथक इंतज़ार। इंतज़ार के साथ-साथ प्रभु के स्वागत की तैयारियां भी। और फिर! उनका इंतज़ार रंग लाया, प्रभु आए और शबरी के जूठे बेर भी खाए। यहां शबरी जी की प्रतीक्षा और प्रभु का उनके प्रति असीम प्रेम दोनों का मार्मिक चित्रण हमें बहुत कुछ सिखा देता है कि गुरू का यदि लक्ष्य महान है तो शिष्य का धैर्य भी उच्चतम ही होना चाहिए। गुरू से एक शिष्य को सदा यही मांगना चाहिए कि हे गुरूदेव आप सदा हमारे हृदय मंदिर में वास करें और हम सदा आपके श्रीचरणों में निवास करें। शिष्य जब अपना सबकुछ अपने गुरूदेव पर छोड़ देता है तो वह सर्वथा समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाता है। भला! जब शीश पर चिंतामणि का हाथ हो तो फिर शिष्य को किस बात की चिंता। वैसे शिष्य को कुछ चिंताएं अपने लिए जरूर रख छोड़नी चाहिए। गुरू मार्ग से कहीं डिग न जाऊं, गुरू आज्ञा पालन से लेश मात्र भी चूक न जाऊं, गुरू के उच्च आदर्शों को स्वयं पर लागू करने में रह न जाऊं, चरित्र की ऊंची चोटी से गिर न जाऊं और गुरू के मिशन में अपनी भूमिका निभाने में पीछे न रह जाऊं। अपनी साधना-सुमिरन, अपनी सेवा और सत्संग इनसे कहीं दूर न हो जाऊं यह चिंताएं तो वास्तव में शिष्य को शोभा ही दिया करती हैं। वैसे जिसे गुरू पर भरोसा है उसे इन सब बातों की भी चिंता नहीं रहा करती। सदगुरू अपने शिष्य को एैसा बना देते हैं कि वह समस्या को तपस्या बना देने मंे सक्षम हो जाता है। गुरू-भगवान तो स्वयं कहते हैं कि जो भक्त अनन्य भाव से मात्र मेरा ही चिंतन किया करता है और एकनिष्ठ होकर मुझ पर ही निर्भर है तो एैसे भक्त का योग क्षेम मैं खुद ही वहन करता हूं। योगक्षेम अर्थात अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा दोनों प्रभु स्वयं करते हैं। यहां एक बात पैदा हो जाती है कि सदगुरूदेव तो पूर्ण रूप से योगक्षेम को एक शिष्य के जीवन में लागू कर ही रहे होते हैं। देखा जाए तो अप्राप्त वस्तु ब्रह्मज्ञान से बढ़कर क्या हो सकती है, इसे सदगुरूदेव प्रदान करते ही हैं यह हो गया योग।

इसके बाद जो प्राप्त हुआ अर्थात ब्रह्मज्ञान है उसकी रक्षा शिष्य को अपने दिव्य सानिध्य में चलाते हुए, उसकी कठिनाईयों-परेशानियों से उसको बचाते हुए र्निविघ्न लक्ष्य तक पहुंचा देना, क्या इससे बढ़कर क्षेम कुछ हो सकता है? गुरूदेव अपने शिष्य का योग तथा क्षेम तो बराबर वहन बड़े शिद्दत के साथ किया करते हैं। शिष्य को कर्म का सिद्धांत तो निभाना ही पड़ता है क्यांेंकि पुरूषार्थ करते हुए जब शिष्य को गुरू कृपा का दिव्य प्रसाद प्राप्त होता है तब सफलता सुनिश्चित हो जाती है। विदुषी जी ने मलूक दास का दृष्टांत भी रेखांकित किया और बताया कि कैसे मलूक दास ने भगवान की परीक्षा लेनी चाही तथा भगवान को उनकी परीक्षा में खरा पाया। तभी से यह कहावत प्रकाश मंे आई- ‘‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।’’ माह का प्रथम रविवार होने के उपलक्ष्य में आश्रम परिसर में भण्डारा (गुरू का लंगर) चलाया गया।

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