फिल्म प्रोजेक्शन के पुराने दिनों की अनसुनी कहानियाँ: जब “शोले” सिर्फ चार प्रिंट्स के साथ रिलीज़ हुई थी, और प्रिंट लेकर थिएटर से थिएटर दौड़ते थे
सिनेमाघरों में फिल्म दिखाने की प्रक्रिया आज बिल्कुल बदल चुकी है, लेकिन पुराने समय में यह एक बेहद मेहनत और चुनौतीपूर्ण काम था। पहले फिल्म प्रोजेक्शन के लिए भारी-भरकम रीलों का इस्तेमाल किया जाता था जिन्हें प्रोजेक्टर में मैन्युअली लोड करना पड़ता था। रील को बार-बार बदलना और सेटिंग्स को ध्यान से करना बेहद जरूरी था, क्योंकि जरा सी चूक से फिल्म की स्क्रीनिंग रुक सकती थी या फिल्म की रील जल सकती थी। ऐसे वक्त में थिएटर के कर्मचारियों को ऑडियंस के मनोबल को बनाए रखने की भी चुनौती होती थी।

पहले का प्रोजेक्शन सिस्टम:
वह समय अलग था, जब सिनेमाघरों में फिल्म दिखाने के लिए एक के बजाय दो प्रोजेक्टर का उपयोग होता था। पुणे के राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार (NFAI) में प्रोजेक्शनिस्ट रहे पी.ए. सलाम बताते हैं कि फिल्म के हर एक भाग को सही से दिखाने के लिए हर रील को सटीक समय पर बदलना आवश्यक था। जब एक रील खत्म होती थी, तुरंत दूसरी रील चालू करनी होती थी, ताकि फिल्म का अनुभव बाधित न हो। यह सब मैन्युअली किया जाता था, जैसे कि प्रोजेक्टर सेट करना, रील को बदलना और कभी-कभी रील को हाथ से रिवाइंड भी करना पड़ता था।
इसके साथ ही, प्रोजेक्शन में आर्क लैंप का उपयोग किया जाता था, जो वेल्डिंग रॉड जैसा होता था। इसे लगातार एडजस्ट करना पड़ता था, वरना फिल्म की स्क्रीनिंग पर लाइट का स्तर कम-ज्यादा हो सकता था। प्रोजेक्शनिस्ट को पूरी फिल्म के दौरान खड़े रहकर इस सेटिंग्स को मैनेज करना होता था, अन्यथा सिनेमा का अनुभव खराब हो सकता था। इस सब के बीच, 35mm फिल्म रील्स का उपयोग भी होता था, जिनका वजन लगभग ढाई किलो होता था, और ढाई घंटे की फिल्म को दिखाने के लिए करीब 40 किलो की रील्स संभालनी पड़ती थी।
फिल्म के ट्रांसपोर्टेशन की समस्याएँ:
फिल्मों के प्रिंट्स की ट्रांसपोर्टेशन भी एक बड़ा चैलेंज था। पुराने समय में जब फिल्में रिलीज होती थीं, तो डिस्ट्रीब्यूटर्स एक दिन पहले फिल्म के प्रिंट थिएटर में भेजते थे, ताकि स्क्रीनिंग समय पर हो सके। लेकिन कई बार रील्स को सही समय पर सिनेमाघरों तक पहुंचाना एक बड़ी समस्या बन जाती थी। कभी-कभी रीलें चोरी हो जाती थीं या रास्ते में खो जाती थीं, जिससे थिएटरों में बडी परेशानी होती थी। एक बार भोपाल भेजी गई फिल्म की दो रील गायब हो गईं और तुरंत दूसरी कॉपी मंगानी पड़ी।
प्रोजेक्टर की तकनीकी समस्याएँ:
कभी-कभी प्रोजेक्टर की तकनीकी समस्याएँ भी सामने आती थीं। एक बार, प्रोजेक्टर का मोटर जल गया, जिससे सिनेमाघर के प्रोजेक्शन रूम में धुआं-धुआं हो गया। इस स्थिति में, फिल्म को रोककर रील को दूसरे प्रोजेक्टर में लगाना पड़ा। हालांकि, दर्शकों को केवल यह पता चला कि फिल्म बंद हो गई, लेकिन इसके कारण की जानकारी उन्हें नहीं हो पाई। इस तरह के हालात में, प्रोजेक्शनिस्ट की सबसे बड़ी चुनौती होती थी कि फिल्म किसी भी हाल में चलती रहे और दर्शकों को इस असुविधा का पता न चले।
डिजिटल प्रोजेक्शन का आगमन:
आजकल, डिजिटल प्रोजेक्शन ने पूरी प्रक्रिया को आसान बना दिया है। पहले जहाँ फिल्म को मैन्युअल तरीके से चलाना और सेट करना पड़ता था, वहीं अब डिजिटल प्रोजेक्शन से फिल्म केवल एक क्लिक पर चल जाती है। पहले जैसे रील बदलने की दिक्कतें नहीं हैं और न ही किसी खराब रील का डर है। अब एक डिजिटल सिनेमा पैकेज (DCP) तैयार होता है और उसे सीधे डिजिटल प्रोजेक्टर में लोड किया जाता है। इसके साथ ही साउंड और वीडियो की सेटिंग्स भी पूरी तरह से ऑटोमेटिक हो गई हैं, जिससे थिएटर मालिकों और प्रोजेक्शनिस्ट के लिए काम बहुत सरल हो गया है।
थिएटर मालिकों का नजरिया:
मुंबई के गेयटी-गैलेक्सी सिनेमा के मालिक मनोज देसाई के मुताबिक, डिजिटल प्रोजेक्शन आने से पुराने प्रोजेक्टर अब काम नहीं करते और पुराने प्रोजेक्टरों का इस्तेमाल भी पूरी तरह से बंद हो चुका है। पहले प्रोजेक्शनिस्ट को साउंड और वीडियो के सेटअप में काफी मेहनत करनी पड़ती थी, लेकिन अब यह सारा काम ऑटोमेटिक हो गया है, जिससे काम में आसानी हुई है। हालांकि, मनोज देसाई का मानना है कि पुराने समय में फिल्म दिखाने का रोमांच कुछ और ही था, जो अब नहीं रहा। डिजिटल प्रोजेक्शन में पिक्चर और साउंड की क्वालिटी तो बेहतर हुई है, लेकिन वह पुराना अनुभव कहीं खो गया है।
“शोले” के प्रिंट का अनूठा किस्सा:
फिल्म “शोले” की रिलीज़ के दौरान के किस्से भी बहुत दिलचस्प हैं। डिस्ट्रीब्यूटर दिलीप धनवानी ने बताया कि जब 1975 में “शोले” रिलीज़ हुई थी, तब सिर्फ चार प्रिंट्स बनाए गए थे—एक दिल्ली, एक यूपी और दो मुंबई के लिए। उस समय एक ही 70mm प्रिंट को मुंबई के अलग-अलग सिनेमाघरों में शिफ्ट किया जाता था। यह काम बहुत ही चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि एक प्रिंट को एक जगह से दूसरी जगह लाने में काफी समय लगता था। इसके लिए बाइक का भी इस्तेमाल होता था और इन प्रिंट्स को थिएटर से थिएटर ले जाया जाता था। अगर कहीं देरी हो जाती, तो शो रुक जाता और दर्शकों का हंगामा हो जाता था।
पुराने और नए प्रोजेक्शन सिस्टम में फर्क:
अब जब डिजिटल प्रोजेक्शन ने अपनी जगह बना ली है, तो सिनेमाघरों में प्रोजेक्शन रूम का पूरा सिस्टम बदल चुका है। पहले जहां एक फिल्म को दिखाने के लिए कई तरह की सेटिंग्स करनी पड़ती थीं, वहीं अब केवल फिल्म लोड करके उसे चलाया जा सकता है। डिजिटल प्रोजेक्शन में साउंड, पिक्चर, और सेटिंग्स सब कुछ ऑटोमेटिक हो गया है, जिससे थिएटर मालिकों के लिए यह बहुत सरल और कम समय लेने वाला हो गया है। अब डिजिटल फाइल्स और पेन ड्राइव में पूरी फिल्म होती है, और प्रोजेक्शनिस्ट को किसी भी तरह की मैन्युअल मेहनत करने की आवश्यकता नहीं होती।
नए दौर का सिनेमा और दर्शक अनुभव:

हालाँकि, पुराने प्रोजेक्शन के मुकाबले आज का डिजिटल सिस्टम ज्यादा सुविधाजनक और आसान है, फिर भी पुराने समय का वह रोमांच अब खो चुका है। प्रोजेक्शनिस्ट की कड़ी मेहनत और फिल्म को सही तरीके से चलाने की चुनौती आजकल नहीं है। लेकिन यह सच है कि डिजिटल टेक्नोलॉजी ने सिनेमा के अनुभव को काफी बेहतर बना दिया है।