दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान में

वैदिक ऋचाओं से गुन्जाएमान हुआ आश्रम।

दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की निरंजनपुर शाखा में आज विशाल पैमाने पर दिव्य सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन हुआ। संस्थान के संस्थापक एवं संचालक पूर्ण सद्गुरू आशुतोष महाराज की असीम अनुकम्पा से मंचासीन ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों द्वारा ईश्वर की महिमा में अनेक सुन्दरतम भजनों का गायन किया गया, तदुपरान्त संस्थान की प्रचारक साध्वी विदुषियों ने परमात्मा तक पहुंचाने वाले परम मार्ग के संबंध में उपस्थित भक्तजनों का मार्ग दर्शन किया। उल्लेखनीय है कि संस्थान प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को आश्रम में विशाल भण्डारा आयोजित करता है, आज भी कार्यक्रम के समापन पर एैसा ही भण्डारा आयोजित हुआ। कार्यक्रम का शुभारम्भ ही संस्थान के वेदपाठी ब्रह्मवेत्ता साधकों एवं साधिकाओं द्वारा किए गए वेदपाठन से किया गया। वातावरण में दिव्यता की तरंगे संचारित होती चली गईं। 

भजन 1- मैं तो कब से तेरी शरण में हूं…….., 2- होइयां बहौत कोताइयां…….. 3- बड़े भाग हमारे एैसा सदगुरू पाया, घट के भीतर ही प्रभु का दर्श कराया……… 4- मेरे सतगुरू तेरी नौकरी, सबसे बढ़िया है सबसे खरी…….. तथा 5- तुम क्या जानो तुम्हारे बिना हम कैसे जिये जा रहे हैं, तुमसे मिलने की आशा में ग़म के आंसू पिये जा रहे हैं……. इत्यादि भजनों पर संगत झूम-झूम उठी। 

भजनों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए मंच संचालन साध्वी विदुषी सुभाषा भारती के द्वारा किया गया। उन्होंने बताया कि वे लोग बड़े ही सौभाग्याशाली होते हैं जिन्हें पूर्ण गुरू की शरण प्राप्त हो जाती है। गुरू तथा परमात्मा में कोई भेद नहीं है, दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। शास्त्र भी कहता है- ‘‘गुरू परमेश्वर एको जाण।’’ शिष्य को सदैव लघुता को ही अपनाना चाहिए क्योंकि लघुता में ही प्रभुता छुपी होती है। गुरू की प्राप्ति के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े गुरू को प्राप्त करने मैं तनिक भी विलम्ब नहीं होना चाहिए। कहा भी गया- ‘‘यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान, शीश दिए जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान।’’ 

पूर्ण गुरू का सत्संग एक दुर्लभतम उपलब्धि- साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती

अपने प्रवचनों में साध्वी जाह्नवी भारती ने बताया कि सत्संग की प्राप्ति का अवसर विरले मनुष्यों को ही मिला करता है। मनुष्य एक बूंद के सदृश्य है जबकि परमात्मा एक सागर की तरह है। यदि बूंद सरिता का संग कर ले तो सागर में समाकर स्वयं सागर का ही एक रूप हो जाया करती है। इसी प्रकार जीवात्मा को यदि सत्संग रूपी सरिता की धारा में बहने का सुअवसर प्राप्त हो जाए तो वह ईश्वर रूपी महासागर से मिल सकती है। जीव तो परमात्मा का ही एक दिव्य अंश है और इसका परम लक्ष्य यही है कि अपने अंशी ईश्वर में समाहित हो जाए। इस विकट यात्रा को सुलभ और सहज तथा सरल बनाने का महती कार्य पूर्ण सदगुरू के ही आधीन है। सद्गुरू परमात्मा के अंश को ‘ब्रह्म्ज्ञान’ की सौगात प्रदान कर अंशी तक पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त किया करते हैं। साध्वी ने सदगुरू लाहिड़ी महाशय तथा उनके शिष्य कृष्णा राम के जीवन का मार्मिक प्रसंग सुनाकर भक्तजनो को अभिभूत कर दिया। साध्वी जाह्नवी भारती ने कहा कि सदगुरू का जन्म तथा कर्म दोनों ही दिव्य हुआ करते हैं। जहां जीव जगत कर्म बंधनों में बंधकर इस संसार में आता है वहीं पूर्ण सदगुरू करूणा के वशीभूत होकर जीव जगत के कर्म बंधनों को काटकर उन्हें अनेक प्रकार की पीड़ाओं से मुक्ति प्रदान करने अवतरित हुआ करते हैं। ध्यान वह सनातन तकनीक है जिससे मनुष्य देहातीत होकर आत्म स्थित हो जाता है। जिस प्रकार एक गाय बछड़े को जन्म देकर उसकी गंदगी को अपने मुख से चाट-चाट कर साफ कर देती है ठीक इसी प्रकार सदगुरूदेव भी अपने अधीनस्थ शिष्य के कर्मसंस्कार रूपी मलिनता को अपने ब्रह्मज्ञान रूपी दिव्य साबुन के द्वारा साफ कर दिया करते हैं।

भाव की प्रबलता से भगवान भक्त के वश में- साध्वी अरूणिमा भारती

कार्यक्रम में प्रवचन करते हुए सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा संस्थान की प्रचारिका साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती ने कहा कि जिस भक्त के भाव अपने ईष्ट के प्रति प्रबल रूप से निष्कामता लिए हुए होते हैं तो एैसे भक्त के वशीभूत होकर वह परमात्मा सदैव उसके अंग-संग रहा करते हैं। जो भक्त अपनी दृष्टि लक्ष्य पर रखता है उसे सफलता मिलकर ही रहती है। सदगुरू सूक्ष्म परमात्मा का स्थूल स्वरूप हुआ करते हैं, जिसे गुरू से प्रेम है वह गुरू के वचनों पर बिना किसी संशय के अमल करने के लिए सदैव तत्पर रहा करता है। गुरू के वचनों का अक्षरशः पालन करने वाला और मन-वचन-कर्म से उनकी आज्ञा में चलने वाला शिष्य कभी भी मायूस नहीं हुआ करता। शिष्य की यही बस पुकार होती है- ‘जो तुमको हो पसंद, वही बात कहेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेगे।’ संसार का क्या है, यह तो द्वन्दात्मक ही है, इसे तो अर्थ का अनर्थ करना बखूबी आता है, कबीर साहब इसकी असलियत कुछ एैसे जाहिर करते हैं- ‘‘रंगी को नारंगी कहे, बने दूध को खोया, चलती को गाड़ी कहे, देख कबीरा रोया।’’ शिष्य को अपने गुरू घर से उतना ही प्रेम हुआ करता है जितना कि अपने सदगुरूदेव से होता है। गुरू घर को अभिवंदित करते हुए कहा जाता है- इंसाफ का मंदिर है ये, भगवान का घर है, कह दे जो तुझे कहना है, तुझे किस बात का डर है। शिष्य अपने गुरू की अभिव्यक्ति हुआ करता है। आवश्यकता है कि शिष्य गुरू के साथ भीतरी जगत में इकमिक हो जाए। फिर भीतर से ही आदेश और निर्देश दोनों प्राप्त होने लगते हैं। 

भण्डारे का प्रसाद वितरण कर कार्यक्रम को विराम दिया गया।

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