राय | झुको, सौदा करो या लहूलुहान हो जाओ: ट्रंप की आर्थिक नीतियां और भारत पर पड़ता प्रभाव
यह एक ऐसा राष्ट्रीय संकट है, जो भारत की अपनी गलती नहीं है, लेकिन इसका भार भारत को उठाना पड़ रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया बयानबाज़ी और धमकियों ने भारत के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। सोमवार (4 अगस्त) को ट्रंप ने भारत पर यह आरोप लगाया कि वह रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीदकर उसे भारी मुनाफे पर बेच रहा है, जबकि यूक्रेन युद्ध के कारण पूरी दुनिया संघर्ष में है। इसके साथ ही उन्होंने भारतीय उत्पादों पर और भी अधिक शुल्क लगाने की धमकी दी, जो पहले ही 1 अगस्त से 25% तक बढ़ा दिया गया था।

ट्रंप के इस बयान ने वैश्विक स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक भूचाल ला दिया है। भारत ने इस आरोप को कड़े शब्दों में नकारते हुए इसे ‘गुमराह करने वाला और अनुचित’ बताया। भारत का कहना है कि वह अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए हरसंभव कदम उठाएगा और ऊर्जा की ज़रूरतों के लिए जो भी रणनीतिक फैसले लिए गए हैं, वे पूरी तरह से वैध और तार्किक हैं। भारत ने यह भी इंगित किया कि अमेरिका खुद रूस से यूरेनियम, पैलेडियम और अन्य औद्योगिक रसायन आयात कर रहा है, लेकिन इन सौदों पर अमेरिका की नैतिकता चुप क्यों है?
ट्रंप की यह राजनीति ‘मोरल पोस्टरिंग’ (नैतिक दिखावा) से ज्यादा कुछ नहीं है। उनका रवैया एकतरफा, भड़काऊ और विश्व व्यापार के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। भारत पर ऐसे आरोप लगाना, जब वह खुद वैश्विक स्थिरता बनाए रखने के लिए अपने सीमित संसाधनों में सामरिक निर्णय ले रहा है, न केवल अनुचित है बल्कि एकतरफा दबाव बनाने की कोशिश भी है।
इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए यह स्पष्ट है कि भारत को अब राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर एकजुट होना होगा। जैसे हमने पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ, और 2020 में गलवान संघर्ष के दौरान चीन के खिलाफ एकता दिखाई थी, ठीक वैसे ही अब इस आर्थिक आक्रमण के खिलाफ भी राष्ट्रीय एकता दिखाने का समय है। यह कोई सामान्य व्यापारिक मसला नहीं है, यह भारत की आर्थिक संप्रभुता और रणनीतिक स्वतंत्रता पर हमला है।
भारत की प्रतिक्रिया इस बार संयमित नहीं, बल्कि दृढ़ और तथ्यात्मक रही। यह एक सकारात्मक संकेत है कि भारत अब केवल कूटनीतिक भाषा में नहीं, बल्कि ठोस तर्कों और अंतरराष्ट्रीय मंच पर दोहरी नीति को उजागर करके अपनी बात रख रहा है। इस स्थिति में भारत को न झुकना है, न ही सौदेबाज़ी करनी है, बल्कि अपने हितों की रक्षा के लिए तैयार रहना है — चाहे इसके लिए कीमत चुकानी पड़े।

इस समय देशवासियों को चाहिए कि वे राजनीतिक विचारधाराओं को एक तरफ रखें और सरकार के साथ खड़े हों। क्योंकि यह केवल सरकार या किसी एक पार्टी का मुद्दा नहीं, यह भारत की आर्थिक स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय गरिमा का प्रश्न है।